कुछ तो बोलो ना।

kuch-toh-bolo-na

क्यूँ बात नहीं सुनती मेरी,
क्यूँ हसकर टाल देती हो हरबार मुझे,
क्या नाराज़ हो मेरी किसी बात से,
या डरती हो अतीत के किसी राज़ से

लबों को खोलो ना।
कुछ तो बोलो ना।।

क्यूँ हर वक़्त बहकी सी बातें करती हो।
क्या हो गया है ऐसा जो भूलती नही,
क्यूँ दिल के दरवाज़े खोलती नही।
क्यूँ क़ैद हो अपने आप मे,
रहना हौ कबतक उस बुरे खाब में

लबों को खोलो ना।
कुछ तो बोलो ना।।

क्यूँ दे रही हो सज़ा खुदको,
क्या अपनो से मिला है दागा तुझको,
एकबार मुझे अपनाकर देखो,
चाहो तो आज़मा कर देखो
तुझ तक दौड़ा चला आऊंगा,
एक कदम तो बढ़ाओ ना।

लबों को खोलो ना।
कुछ तो बोलो ना।।

– राघव


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